25/05/2019

क्या बोलूं और कैसे बोलूं

(सूरत में दर्दनाक हादसें के शिकार बच्चों और उनके मातापिता को समर्पित)

क्या बोलूं और कैसे बोलूं


क्या बोलूं और कैसे बोलूं
अपने दिल के दर्द को आॅसूओं में कैसे घोलूं

ये काल नहीं बरसा जो दिल पर पत्थर रखूॅ
लापरवाही के जमघट को संयोग मैं कैसे समझूं
बिछडना नियति थी तो बिछड ही जाना था
लेकिन उसकी तडपन से समझौता कैसे कर लूं
कोई तो बताओं मैं धीरज कैसे धर लूं

अंत समय में ना जाने कितनी बार पुकारा होगा
ना जाने कैसे तडपा मेरी आंखों का तारा होगा
उसके हंसने से मेरे मन की फुलवारी खिल जाती थी
उसके गुस्सा होने पर भी मैं बलिहारी जाती थी
उसकी चीखों को याद कर बताओं मैं कैसे सम्भलूं

उसकी एक खरोंच मानो मेरे दिल पर लगती थी
उसकी आंखों के पानी से मेरे मन की धरती हिलती थी
रातों में डरती थी तो सीने से लग जाती थी
मेरे हाथों को छूकर वो सारी दुनिया पाती थी
अब अंत में समय में एक खरोंच क्या कितना दर्द हुआ होगा
डर के जब कूदी होगी कितना डर सहा होगा
कितना मुझे पुकारा होगा कितना वो चिल्लाई होगी
मेरी लाडली ना जाने कैसे कैसे घबराई होगी
मुझे बता दो क्या गलती थी बच्चों की, परिवारों की
क्या जिम्मदारी बनेगी अब इन जवाबदारांे की
बच्चा वापस लायेंगें, या उनकी तडपन वापस लायेंगें
क्या कह कर वो हमारे घावों को सहलायेंगें
इस बिछुडन के जहर कोई बताये मैं कैसे निगलूं
क्या बोलूं और कैसे बोलूं

19/09/2016

Poetry

मेरी किताबों में रखा जो एक खत है,
असल में हकीकतों का दस्तखत है.

जिन्दगी में जो कहीं दर्ज हुआ नहीं,
एक गुमनाम छिपा ये वो ही वक्त है.

इस बंजर से कभी तो फूटेंगी कपोलें,
माना कि इस जमीन की तासीर सख्त है.

एक डाल टूटते ही दो और निकल आती हैं,
क्हते हैं उस गांव में एक ऐसा दर्रख्त है.

मुझे मंजूर नहीं एक सांस भी लेना,
जहां उसने कर रखी हवा भी जब्त है.